## भारत कुमार 🇮🇳 एक Brand कथा
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अगर पूछा जाए कि मनोज कुमार 87 वर्ष की उम्र में प्राण त्यागते हुए.. संसार के लिए क्या छोड़ गए हैं
तो मैं कहूंगा कि अपने पीछे वो भारतीयता के सिनेमाई ब्रांड की अनोखी केस स्टडी छोड़ गए हैं
हिंदी सिनेमा में...
ना कोई भारत कपूर है,
ना कोई भारत बच्चन है,
ना कोई भारत खान है,
ना कोई भारत देवगन है।
कभी सोचा है आपने —
किसी का काम इतना गहरा हो सकता है कि लोग उसका असली नाम भूल जाएं… और उसे देश के नाम से पुकारने लगें?
हरिकृष्ण गिरि गोस्वामी को फिल्मी दुनिया ने "मनोज कुमार" कहा।
लेकिन मनोज कुमार के देशभक्ति वाले किरदार ऐसे दिल में उतरे कि लोग कहने लगे — "ये मनोज नहीं… ये तो _भारत कुमार_ है।"
USP समझते हैं आप? Unique Selling Point.
हर कलाकार की कोई न कोई विशिष्टता होती है। मनोज कुमार की थी — सिनेमा के पर्दे को रोशन करने वाली भारतीयता।
उन्होंने सिनेमा के लिए अपना यूएसपी देशभक्ति, नैतिकता और भारतीय जीवन-मूल्यों को बना लिया।
शहीद में भगत सिंह बने, पूरब और पश्चिम में भारतीय संस्कृति और आधुनिकता के संघर्ष को दिखाया, उपकार में किसान-सैनिक के दोहरे रोल से देश की आत्मा को छुआ — और क्रांति में आज़ादी के लिए लड़ते उस नायक को जिया, जो सिर्फ़ फिल्मी नहीं, वैचारिक भी था।
और फिर आई रोटी कपड़ा और मकान — एक ऐसी फिल्म जिसने 70 के दशक के भारत की सामाजिक-आर्थिक असुरक्षाओं को पर्दे पर उतारा। ये फिल्म सिर्फ़ मनोरंजन नहीं थी, एक सामाजिक दस्तावेज़ थी। रोटी, कपड़ा और मकान जैसी बुनियादी ज़रूरतों को लेकर उन्होंने सवाल उठाए और दर्शकों को सोचने पर मजबूर किया। मनोज कुमार ने इस फिल्म का निर्देशन भी किया था। उनके ज़रिए जिस तरह का सिनेमा लोगों के सामने आया वो उद्देश्यपूर्ण और संवेदनशील था।
उनकी ये ब्रैंडिंग ऐसी चली कि आज तक कोई दूसरा भारत कुमार नहीं हुआ।
हिंदी सिनेमा में ये एक अनोखी ब्रैंड स्टडी है।
सोचिए, एक अभिनेता के किरदारों से भारत की जनता का जुड़ाव इतना गहरा हो गया…
कि करियर के बाद भी मरते दम तक उन्हें हमेशा भारत कुमार ही कहा गया।
मनोज कुमार अब नहीं हैं पर उनके किरदारों में जिंदा है — भारत का एक पूरा दौर, जो नैतिक मूल्यों के लिए संघर्ष कर रहा था और बेचैन था।
2025-04-04