## इंतज़ार... अपनों में साकार
#Faces
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प्रिय रोहित
हम-तुम बढ़ रहे हैं, स्मृति से गतिमान विस्मृति की ओर…यानी याद्दाश्त का वो क्षेत्र जहां कोई अपना.. हमारे दैनिक जीवन के हर कोने में एक बार पूरी तरह पिघलकर जम जाता है…और फिर वो दिखता तो नहीं, लेकिन महसूस होता रहता है.. आजकल तुम्हारा स्टेटस यही है..
इंतज़ार समय का वो टुकड़ा है जिसकी मात्रा तो घड़ी में दिखती है.. लेकिन वो मूर्त रूप में दिखता नहीं.. हालांकि खोई हुई चीज़ों में, प्रिय लोगों में.. इंतज़ार साकार होता है… और निराकार होते हुए भी दिखने के बहुत करीब आ जाता है, अगला आइंसटाइन हुआ तो सूत्र निकालेगा.. कि जिन्हें हम चाहते हैं उनका इंतज़ार और उनके जीवन से स्थगित होने का दुख कैसे सचमुच दिखता रहता है.. ज़रूर कोई हिस्सा होता होगा शरीर के किसी अंग की तरह.. जो चला जाता होगा… तो उसकी जगह छूट जाती होगी.. और उस हिस्से में असंख्य क़िस्से अल्ट्रासॉनिक रेंज में गूंजते होंगे
आज भी रोज़ दफ्तर में अकेले बैठकर खाना खाते हुए… मन में रिंगटोन बजती है…मैं कॉल उठाता हूँ…आवाज़ सी आती है— त्रिपाठी… चल बहुत तेज़ भूख लग रही है.. खाना खाते हैं.. उसके बिना लंच बॉक्स… आज भी ताला लगे अंधेरे घर जैसा है.. उस घर में यादों का स्विच ऑन करता हूँ.. तो ही चमक आती है.. कुछ अच्छा खाऊँ, कुछ अच्छा करूँ, कुछ अच्छा हो जाए… और रोहित याद न आए.. ऐसा पहले भी नहीं होता था.. आज भी नहीं होता…
फोन की कॉन्टैक्ट लिस्ट में रोहित का नाम एक चुंबकीय स्मारक की तरह है… उसके नाम के ऊपर से गुज़रते हुए अंगूठा ठहर जाता है.. फोन मिलाने, उससे बात करने का मन करता है, कुछ ऐसी व्यवस्था होनी चाहिए थी कि ज़्यादा नहीं तो महीने या साल में कम से कम एक बार बात हो सके…कोई आकाशवाणी टाइप तकनीक हो जाए.. कोई चिट्ठी पत्री जैसी चीज़?.. आगे आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के और उन्नत होने के बाद शायद ऐसा हो सके कि किसी व्यक्ति के शरीर के जाने के बाद उसकी सोच..एक डिजिटल विरासत के रूप में ज़िंदा रहे.. और उसके अपनों से संवाद करती रहे.. खैर ये सोचना तो वैज्ञानिक गल्प जैसा है.. पर उम्मीद करता हूँ कि कभी ये भी सच हो जाए..
आज से एक साल पहले इस समय मेरा रोम रोम रो रहा था, इसके बाद हर गुज़रते दिन के साथ अलग अलग भावनाओं की, और सवालों की लहरें आती जाती रहीं..
आंसू गिरे तो चुपचाप प्रश्न बनकर.. जीवन के गूढ़ सूत्र बनकर.. ये बात चुभती है कि मैंने और उसने साथ में खाना खाया था… पर उसकी तबीयत खराब हुई.. मेरी नहीं… वो अस्पताल पहुंच गया.. मैं नहीं… वो चला गया.. मैं रह गया.. कभी कभी सोचता हूँ कि उसमें ऐसे कौन से काँटे लगे थे कि वो नहीं रहा और मुझमें कौन से रत्न जड़े थे कि मैं बच गया.. इसका उल्टा भी तो हो सकता था.. सब संयोग है.. वैसा ही संयोग कि आप किसी के साथ सड़क पार कर रहे हों और अचानक आता हुआ कोई वाहन आपके बजाए.. आपके बग़ल वाले को दुनिया से बाहर कर दे… या सड़क पर पड़ी कील.. हज़ारों वाहनों को बख्शते हुए आपके टायर में घुस जाए..
रोहित का यूं जाना…अचानक स्थगित होना.. इसमें हमारे लिए सबक है कि ज़िंदगी में हर पल क़ीमती है.. हर रोज़ इस तरह तैयार हो.. कि कभी दोबारा मौका नहीं मिलेगा.. इस तरह निकलो कि लौटोगे नहीं… कामकाज हो, अभिव्यक्ति हो या प्रेम, इस तरह करो कि आगे शायद मौका मिलेगा नहीं.. मृत्युबोध.. सोच समझ के कूड़े को साफ कर देता है.. जीवन में हम हर पल जो कबाड़ लादकर चलते हैं.. अक्सर उसकी ज़रूरत नहीं होती… जीवन के इस दौर में मैं हल्का हो रहा हूँ, और ऐसी कोशिश है कि मैं आसपास थोड़ा ही सही.. उजाला कर सकूँ.. इस उजाले में रोहित के साथ की चमक भी समाहित रहेगी..
धन्यवाद रोहित… अब तुम्हारे हाथ का बना कुछ खाना है… भले ही खुद बनाना है
2022-04-30