### Winner Wave
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इस तस्वीर में दो खिलाड़ियों का प्रयास मुस्कुरा रहा है।
Wimbledon Men’s Singles Final… Carlos Alcaraz ने जीता और Novak Djokovic ने हारा। ये हेडलाइन ज़रूर है, हो सकता है सारी चर्चाएँ इसी पर सिमटकर रह जाएं। लेकिन बात सिर्फ इतने पर ख़त्म नहीं होती।
हार जीत के मध्य की रेखा, मुक़ाबले के दस मिनट बाद धुंधली हो जाती है,
मानो धुएँ का एक छल्ला सा आसमान की ओर उठता हुआ, साथ ही साथ मिटता हुआ…
फिर प्रयास की चमक ही दिखती है
कार्लोस अल्करैज़ 21 वर्ष के हैं जबकि नोवाक जोकोविच 37 वर्ष के… जब जोकोविच ने 2008 में अपना पहला ग्रैंड स्लैम टूर्नामेंट जीता था तब कार्लोस सिर्फ़ 5 साल के थे।
उम्र में जुड़ते हुए वर्ष ठहराव लाते हैं.. जोकोविच के खेल के इस दौर में आप ठहराव देखेंगे, घटती ऊर्जा का मैनेजमेंट करने वाली चालाक तकनीक देखेंगे। जबकि कार्लोस हवा का झोंका है, उसमें सधी हुई चीज़ों को हिलाने वाला बहुत सारा कच्चा-पन और बच्चा-पन मौजूद है। उसकी एक लय है जो कोर्ट पर विरोधी को बहाकर ले जाती है।
जोकोविच ने टूर्नामेंट से ठीक पहले 5 जून को अपने घुटने का ऑपरेशन करवाया
कोई उम्मीद नहीं थी कि वो विंबलडन खेलेंगे और फ़ाइनल तक पहुँचेंगे लेकिन ऐसा हुआ, क्योंकि उनकी लड़ने की क्षमता अद्भुत है। खेल के मैदान में कई बार आपकी क्षमताओं से ज़्यादा बिजली, आपके भरोसे में होती है। इस बिजली से नोवाक जहाँ तक पहुँच सकते थे वहाँ पहुँचे… लेकिन फ़ाइनल में 21 साल के कार्लोस ने अपने खेल से उन्हें निरुत्तर कर दिया।
इसी तरह पुराने चैंपियन्स को शिखर पर कुछ पल ठहरते और चकित होकर उतरते हुए, हमने देखा है।जो नया है वो अपने कच्चेपन की ऊर्जा लेकर आता है, उसके प्रदर्शन की लय.. शिखर पर खड़े व्यक्ति को अपने कंपनों से गिरा देती है…और ये चक्र चलता जाता है, फिर कोई नया आता है, कच्चेपन की ऊर्जा और तिलिस्मी लय लाता है।
> पिछले साल जब नोवाक जोकोविच हार गए थे,
> तब मैंने हार को पचाने की शक्ति पर कुछ लिखा था,
> उसे भी यहाँ जोड़ रहा हूँ
### Defeat Digestion
घंटों तक लड़ने के बाद हार जाना
हारकर उठना, कपड़े झाड़ना,
दिल की बात ईमानदारी से कहना,
अफसोस के आँसू हौले से सार्वजनिक कर देना,
फिर हल्का होकर भविष्य की ओर उड़ना,
Wimbledon Men's Singles Final में हारने के बाद नोवाक जोकोविच ( Novak Djokovic ) ने यही किया।
इस दौर में हार को पचाने की शक्ति कम हुई है। अगर कोई हार जाए, तो उसकी बात कोई नहीं करता, उसका पक्ष कोई नहीं सुनना चाहता, सब जीत को Like, Subscribe और Share करते हैं।
हार धुंध की तरह चारों तरफ छा जाती है और उस धुंध में प्रयास का सूर्य छिप जाता है। लेकिन हार भी बहुत कीमती है, क्योंकि ये दृष्टि/ प्रयास/ तौर-तरीके को मांजने का काम करती है।
हार को पचाना, कपड़े झाड़कर उठना, फिर से मुक़ाबला करना, ये शिक्षा हर मां अपने बच्चे को देती है। परंतु संसार का सेटअप ऐसा होता जा रहा है कि हारने की गुंजाइश नहीं छोड़ी हमने।हारे हुए लोग नये दौर के अछूत बनते जा रहे हैं। हम हारे हुए को चलती फिरती गलती के रूप में देखते हैं, उसके प्रति कोई सहानुभूति नहीं रखते। एक निश्चित दूरी बना लेते हैं कि कहीं दूसरे की पराजय/कष्ट की छाया हमारी दैनिक विजय/संभावनाओं पर न पड़ जाए।
कितने ही लोग देखे हैं मैंने जो हारे हुए का अपमान करते हैं और अपनी इस कुंठा को दुनिया का ट्रेंड, दुनिया का असली चेहरा, दुनिया का क्रूर चेहरा बताते हैं। जबकि ये चेहरा खुद उनका होता है, क्योंकि उन्होंने खुद हार का सम्मान करना नहीं सीखा, पराजय की कड़वी दवा नहीं चखी।
अब जीतना सिखाना एक उद्योग है, परंतु इस दौर में जीतने से ज़्यादा ज़रूरी है, ये सीखना कि हारकर भी हँसा कैसे जाए ? अगले अवसर की ओर बढ़ा कैसे जाए?.. हार का मैनेजमेंट किया कैसे जाए?
भारत जैसे भीड़ भरे देश में बच्चों और युवाओं के लिए, हार वाला ‘हार’ पहनकर देखना भी बहुत ज़रूरी है।
जहां सब जीतते हैं.. वहां जीत के उत्सव नहीं होते... सिर्फ जीत का खालीपन होता है...
वैसे हारने पर आप क्या महसूस करते हैं और किस तरह उसके दुख से आगे बढ़ते हैं ? [शेयर कीजिएगा](https://x.com/sidtree/status/1680976692951543808)